The Nature of Birth and Death

The Nature of Birth and Death – Lord Krishna Speaks to Arjuna

As Arjuna stood in the battlefield of Kurukshetra, he was overcome with feelings of weakness and confusion as he faced the prospect of potentially killing his own half-brothers, uncles, friends and teachers. At this moment, Lord Krishna, who was his companion in the battlefield, sought to allay his fears by teaching him about the distinction between the physical body (which is impermanent) and the soul or aatman (which is permanent). This article presents Shankaracharya’s commentary on the verses in which the nature of the birth and deathis explained by Lord Krishna in the Bhagavad Gita.

Bhagavad Gita – Chapter 2, Verse 24.

achChedyo.ayamadaahyo.ayamakledyo.ashoshhya aiva cha.
nityaH sarvagataH sthaaNurachalo.aya.n sanaatanaH.. B.G. II-24

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य ऐव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।

The aatman cannot be cut, burnt, suffer any decay or be dried out. The five forces of nature which are capable of destroying physical elements by their combined actions have no influence on the aatman. That is why it is referred to as nitya or permanent or unchangeable. This permanence gives it the powers of omnipresence, omniscience and stability. It is this stability that gives it the quality of immovability and the aatman is called sanatana (hinduism is also referred to as sanatana dharma). Sanatana literally means – that which is not created or destroyed – it belongs to time immemorial.

Bhagavad gita 0224

यह अात्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न गलनेवाला अौर न सूखनेवाला है। अापसमें एक दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस अात्माका नाश करनेके लिये समर्थ नहीं हैं। इसलिये यह नित्य है।

नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणु की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह अात्मा अचल है अौर इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारणसे उत्पन्न नहीं हुअा है। पुराना है।

Bhagavad Gita – Chapter 2, Verse 25.

avyakto.ayamachintyo.ayamavikaaryo.ayamuchyate.
tasmaadeva.n viditvaina.n naanushochitumaharsi.. B.G. II-25

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमहर्सि।।

The aatman cannot be known or understood by purely using the brain and its mental powers. Hence it is known as ‘avyakta’ or indescribable – that which defies description. It cannot be known purely by meditating or thinking upon it (’chintan’) – hence it is known as ‘achintya’. Only those entities that can be perceived by our five senses can be understood by ‘chintan’.

Since the aatman cannot be described by any elements known to man, it is without shape or ‘vikaar’ and is known as ‘avikaari’ or immutable. It is beyond the range of form or thought and the changes that affect the mind, life and body do not touch him. Forms may change; things may come and go but that which remains behind them all is for ever.

Bhagavad gita 0225

यह अात्मा बुद्धि अादि सब करणोंका विषय नहीं होनेके कारण व्यक्त नहीं होता (जाना नहीं जा सकता) इसलिये अव्यक्त है। इसीलिये यह अचिन्तय है, क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तनका विषय होता है। यह अात्मा इन्द्रियगोचर न होनेसे अचिन्तय है।

यह अात्मा अविकारी है अर्थात् जैसे दहीके जाँवन अादिसे दूध विकारी हो जाता है वैसे यह नहीं होता। तथा अवयवरहित (निराकार) होनेके कारण भी अात्माा अविक्रिय है, क्योंकि कोई भी अवयवरहित (निराकार) पदार्थ, विकारवान् नहीं देखा गया।

अत: विकाररहित होनेके कारण यह अात्मा अविकारी कहा जाता है। सुतरां इस अात्माको उपयुर्क्त प्रकारसे समझकर तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये कि ‘मैं इनका मारनेवाला हूँ’ या ‘मुझे ये मारे जाते हैं’ इत्यादि।

Bhagavad Gita – Chapter 2, Verse 26.

atha chaina.n nityajaata.n nitya.n vaa manyase mRRitam.h.
tathaapi tva.n mahaabaaho naiva.n shochitumaharsi.. B.G. II-26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमहर्सि।।

Even if thou thinkest that the self is perpetually born and perpetually dies, even then, O mighty-armed (Arjuna), thou shouldst not grieve.

Bhagavad gita 0226

‘अथ’ ‘च’ ये दोनों अव्यय अौपचारिक स्वीकृतिके बोधक हैं। यदि तू इस अात्माको सदा जन्मनेवाला अर्थात् लोकप्रसिद्धिके अनुसार अनेक शरीरोंकी प्रत्येक उत्पत्तिके साथ-साथ उत्पन्न हुअा माने तथा उनके प्रत्येक विनाशके साथ-साथ सदा नष्ट हुअा माने।

तो भी अर्थात् एेसे नित्य जन्मने अौर नित्य मरनेवाले अात्माके निमित्त भी हे महाबाहो! तुझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है। क्योंकि जन्मनेवालेका मरण अौर मरनेवाले का जन्म, यह दोनों अवश्य ही होनेंवाले हैं।

Bhagavad Gita – Chapter 2, Verse 27.

jaatasya hi dhruvo mRRityurdhruvaM janma mRRitasya cha.
tasmaadaparihaarye.arthe na tvaM shochitumaharsi..B.G. II-27

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमहर्सि।।

For to the one that is born – death is certain – and certain is birth for the one that has died. The events of death and re-birth are thus unavoidable, and one should not grieve for them.

Bhagavad gita 0227

जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव – निश्चित है। अौर जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव – निश्चित है। अौर जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव – निश्चित है। इसलिये यह जन्म-मरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता। इस अपरिहार्य विषय के निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं।


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